उदासी पर शेर

रचनाकार की भावुकता एवं

संवेदनशीलता या यूँ कह लीजिए कि उसकी चेतना और अपने आस-पास की दुनिया को देखने एवं एहसास करने की कल्पना-शक्ति से ही साहित्य में हँसी-ख़ुशी जैसे भावों की तरह उदासी का भी चित्रण संभव होता है । उर्दू क्लासिकी शायरी में ये उदासी परंपरागत एवं असफल प्रेम के कारण नज़र आती है । अस्ल में रचनाकार अपनी रचना में दुनिया की बे-ढंगी सूरतों को व्यवस्थित करना चाहता है,लेकिन उसको सफलता नहीं मिलती । असफलता का यही एहसास साहित्य और शायरी में उदासी को जन्म देता है । यहाँ उदासी के अलग-अलग भाव को शायरी के माध्यम से आपके समक्ष पेश किया जा रहा है ।

मायूसी-ए-मआल-ए-मोहब्बत न पूछिए

अपनों से पेश आए हैं बेगानगी से हम

उन का ग़म उन का तसव्वुर उन के शिकवे अब कहाँ

अब तो ये बातें भी ऐ दिल हो गईं आई गई

कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तिरा ख़याल भी

दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी

उस ने पूछा था क्या हाल है

और मैं सोचता रह गया

ये ज़िंदगी जो पुकारे तो शक सा होता है

कहीं अभी तो मुझे ख़ुद-कुशी नहीं करनी

कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त

सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया

किसी के तुम हो किसी का ख़ुदा है दुनिया में

मिरे नसीब में तुम भी नहीं ख़ुदा भी नहीं

कोई ख़ुद-कुशी की तरफ़ चल दिया

उदासी की मेहनत ठिकाने लगी

हम ग़म-ज़दा हैं लाएँ कहाँ से ख़ुशी के गीत

देंगे वही जो पाएँगे इस ज़िंदगी से हम

ज़ख़्म ही तेरा मुक़द्दर हैं दिल तुझ को कौन सँभालेगा

ऐ मेरे बचपन के साथी मेरे साथ ही मर जाना

ख़ुदा की इतनी बड़ी काएनात में मैं ने

बस एक शख़्स को माँगा मुझे वही न मिला

वैसे तो सभी ने मुझे बदनाम किया है

तू भी कोई इल्ज़ाम लगाने के लिए आ

ग़म है न अब ख़ुशी है न उम्मीद है न यास

सब से नजात पाए ज़माने गुज़र गए

मुझ से नफ़रत है अगर उस को तो इज़हार करे

कब मैं कहता हूँ मुझे प्यार ही करता जाए

किसी ने फिर से लगाई सदा उदासी की

पलट के आने लगी है फ़ज़ा उदासी की

अभी न छेड़ मोहब्बत के गीत ऐ मुतरिब

अभी हयात का माहौल ख़ुश-गवार नहीं

जुदाइयों के ज़ख़्म दर्द-ए-ज़िंदगी ने भर दिए

तुझे भी नींद आ गई मुझे भी सब्र आ गया

इश्क़ में कौन बता सकता है

किस ने किस से सच बोला है

उठते नहीं हैं अब तो दुआ के लिए भी हाथ

किस दर्जा ना-उमीद हैं परवरदिगार से

वही कारवाँ वही रास्ते वही ज़िंदगी वही मरहले

मगर अपने अपने मक़ाम पर कभी तुम नहीं कभी हम नहीं

हमारे घर की दीवारों पे ‘नासिर’

उदासी बाल खोले सो रही है

जब हुआ ज़िक्र ज़माने में मोहब्बत का ‘शकील’

मुझ को अपने दिल-ए-नाकाम पे रोना आया

आस क्या अब तो उमीद-ए-नाउमीदी भी नहीं

कौन दे मुझ को तसल्ली कौन बहलाए मुझे

हमारे घर का पता पूछने से क्या हासिल

उदासियों की कोई शहरियत नहीं होती

ये और बात कि चाहत के ज़ख़्म गहरे हैं

तुझे भुलाने की कोशिश तो वर्ना की है बहुत

चंद कलियाँ नशात की चुन कर मुद्दतों महव-ए-यास रहता हूँ

तेरा मिलना ख़ुशी की बात सही तुझ से मिल कर उदास रहता हूँ

देखते हैं बे-नियाज़ाना गुज़र सकते नहीं

कितने जीते इस लिए होंगे कि मर सकते नहीं

दर्द-ए-दिल क्या बयाँ करूँ ‘रश्की’

उस को कब ए’तिबार आता है

न जाने किस लिए उम्मीद-वार बैठा हूँ

इक ऐसी राह पे जो तेरी रहगुज़र भी नहीं

हम को न मिल सका तो फ़क़त इक सुकून-ए-दिल

ऐ ज़िंदगी वगर्ना ज़माने में क्या न था

रोने लगता हूँ मोहब्बत में तो कहता है कोई

क्या तिरे अश्कों से ये जंगल हरा हो जाएगा

ऐ मोहब्बत तिरे अंजाम पे रोना आया

जाने क्यूँ आज तिरे नाम पे रोना आया

कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया

बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया

कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब

आज तुम याद बे-हिसाब आए

इस डूबते सूरज से तो उम्मीद ही क्या थी

हँस हँस के सितारों ने भी दिल तोड़ दिया है

दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है

हम भी पागल हो जाएँगे ऐसा लगता है

ये शुक्र है कि मिरे पास तेरा ग़म तो रहा

वगर्ना ज़िंदगी भर को रुला दिया होता

शाम-ए-हिज्राँ भी इक क़यामत थी

आप आए तो मुझ को याद आया

ज़मीन-ए-दिल पे मोहब्बत की आब-यारी को

बहुत ही टूट के बरसी घटा उदासी की

हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं उन को

क्या हुआ आज ये किस बात पे रोना आया

आज तो जैसे दिन के साथ दिल भी ग़ुरूब हो गया

शाम की चाय भी गई मौत के डर के साथ साथ

दिन किसी तरह से कट जाएगा सड़कों पे ‘शफ़क़’

शाम फिर आएगी हम शाम से घबराएँगे

मैं हूँ दिल है तन्हाई है

तुम भी होते अच्छा होता

शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास

दिल को कई कहानियाँ याद सी आ के रह गईं

अब तो ख़ुशी का ग़म है न ग़म की ख़ुशी मुझे

बे-हिस बना चुकी है बहुत ज़िंदगी मुझे

सुपुर्द कर के उसे चाँदनी के हाथों में

मैं अपने घर के अँधेरों को लौट आऊँगी

दुनिया की महफ़िलों से उकता गया हूँ या रब

क्या लुत्फ़ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो

मैं रोना चाहता हूँ ख़ूब रोना चाहता हूँ मैं

फिर उस के बाद गहरी नींद सोना चाहता हूँ मैं

तेरा मिलना ख़ुशी की बात सही

तुझ से मिल कर उदास रहता हूँ

हम तो कुछ देर हँस भी लेते हैं

दिल हमेशा उदास रहता है

देखते हैं बे-नियाज़ाना गुज़र सकते नहीं

कितने जीते इस लिए होंगे कि मर सकते नहीं

दर्द-ए-दिल क्या बयाँ करूँ ‘रश्की’

उस को कब ए’तिबार आता है

किसी ने फिर से लगाई सदा उदासी की

पलट के आने लगी है फ़ज़ा उदासी की

शाम-ए-हिज्राँ भी इक क़यामत थी

आप आए तो मुझ को याद आया

ज़मीन-ए-दिल पे मोहब्बत की आब-यारी को

बहुत ही टूट के बरसी घटा उदासी की

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